Wednesday 14 May 2014

मौत तू एक कविता है

ज़िन्दगी और मौत तो ऊपर वाले के हाथ में है जहाँपनाह,
इसे तो न आप बदल सकते हैं और न मैं,
हम सब तो रंगमंच कि कटपुतलिया हैं, 
कौन कब कैसे उठेगा ये कोई नहीं जानता |


1972 कि सुपरहिट फिल्म "आनंद" कि इन पंक्तियों में जीवन कि सच्चाई को बड़े ही आसन रूप से समझाया गया है | जीवन का सत्य : मौत | हम मौत के बारे में बात नहीं करना चाहते | इसे बड़ा ही निराशाजनक स्वाभाव मन जाता रहा है | ये जीवन कि एक अहम सच्चाई को देखने का एक गलत नजरिया है जो कोई भेद भाव नहीं करती | ये राजाओं के पास भी जाती है और भिखारियों के पास भी, अमीर के पास भी और गरीब के पास भी, आस्तिक के पास भी और नास्तिक के पास भी | बच्चा, जवान या बूढा, मौत किसी के भी पास आ सकती है | आप अपनी आँखें मूंदकर यह नहीं सोच सकते कि मौत हर किसी को अपनी आगोश में ले लेगी पर आपको बक्श देगी | ऐसा नहीं होगा | इसलिए बेहतर है कि हम इसके लिए तैयार रहे और जब यह आये तो अपने चेहरे पर एक मुस्कान के साथ इसका स्वागत करें |
कुछ दिनों पहले मेरे साथ एक ऐसी घटना घटी जिससे मेरे अन्दर मौत को लेकर एक उथल पुथल शुरू हो गयी | मेरे पिता बड़े ही आस्तिक हैं | साल में दो बाद वैष्णो माता का दर्शन करने और हर नवरात्री कामख्या देवी के मंदिर ज़रूर जाते हैं | इस बार भी यही हुआ | वो कामख्या देवी के मंदिर से वापस आ रहे थे | गाड़ी रात के साढ़े ग्यारह बजे गोरखपुर स्टेशन आती है | समयानुसार गाड़ी 11:15 पर सरदारनगर रेलवे स्टेशन पे पहुँच चुकी थी और मैं अपने पिता को लेने के लिए घर से निकल चूका था | हलकी बरसात हो रही थी | मैं 11:30 पर स्टेशन पहुँच गया था पर ट्रेन अब भी वहीँ खड़ी थी | मैं वहीँ रूककर इंतज़ार करने लगा | समय बीतता रहा पर गाड़ी के आने कि कोई सूचना नहीं मिली | अपने पिता को फ़ोन किया तोह पता चला कि गाड़ी का इंजन जल गया है और शायद एक घंटा और लग जाए | मैंने सोचा कि वहीँ रूककर इंतज़ार करना ही बेहतर होगा |  
मैं वहां खड़ा ही था कि मेरे ठीक पीछे एक एम्बुलेंस आकर रूकती है और उसमे से एक वार्द्ब्याय निकलता है | पीछे का दरवाज़ा खोलकर वो एक आदमी को अपने कंधो पर चढ़ाता है और बड़ी मुश्किल से उसे पार्किंग कि जगह के पास लाकर छोड़ देता है | बड़ी तेज़ी से वापस एम्बुलेंस में बैठता है और उसी तेज़ी से बारिश कि वजह से सड़क पर लगे हुए पानी को उड़ाते हुए एम्बुलेंस गायब हो जाती है | मैं इधर उधर देखता हूँ तोह पता हूँ कि किसी ने भी शायद ये नहीं देखा था | हर कोई अपने काम में व्यस्त था | लोग आ-जा रहे थे |  बाहर खड़े लोग बस अपनी घडी पर नज़रें गडाए थे | मैंने नज़रें घुमाईं तो देखा कि जिस आदमी को वहां छोड़ा गया था वो अब धीरे धीरे रेंगना शुरू करता है | 
करीब ५०-५५ का एक दुबला पतला सा आदमी | फटी पुरानी लुंगी और बनयान पहने हुए | चेहरा सिकुड़ा हुआ, आँखें उसी सिकुड़े चेहरे में धसी हुई | माथे पर एक सफ़ेद पट्टी थी और उसमे से खून का धब्बा साफ़ दिख रहा था | हाथ पैर बिलकुल काम नहीं कर रहे थे | रेंगता हुआ कीड़ा देखा है ? पेट के बल किस तरह रेंगता है वह | किस तरह हाथ पैर चलाता है | वैसा ही कुछ देख रहा था मैं | मेरा दिल बैठ गया | अचानक से मेरी साड़ी इन्द्रियां उसी कि ओर आकर्षित हो गयी और मैं गौर से उसे देखने लगा | क्या मानव जीवन इतना ही तुच्छ है कि रेंगते हुए कीड़े और एक मनुष्य को हम एक ही श्रेणी में लाकर खड़ा कर सकते हैं ? इतनी लाचारी और बेबसी आखिर क्यूँ है इसके जीवन में ? उसे रेंगता देख नहीं पा रहा था मैं | मैंने जानने कि कोशिश कि कि ट्रेन कबतक आएगी | पता चला कि ट्रेन अभी भी सरदारनगर में ही थी | मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था सिवाय उसे यूँ ही रेंगता देखने के | मैं दूसरी तरफ घूम गया | पर कुछ ही देर बाद "या अल्लाह, या अल्लाह" कि दबी दबी दर्द भरी आवाज़ सुने दी | मैंने मुड़ कर देखा तोह वो आदमी अब रेंगते रेंगते एक खम्बे तक आ गया था और किसी तरह पीठ टिका कर वहां पड़ा हुआ था | बारिश होने लगी थी और वो वही पड़ा पड़ा भीग रहा था | 
"मर जाएगा ये तो", मेरे बगल में खड़े किसी ने कहा | मैंने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया | चुप चाप खड़ा तमाशा देखता रहा | 
"ऐसे नहीं मरेगा तोह बारिश कि वजह से मर जाएगा", मेरे बगल वाले व्यक्ति ने फिर एक कोशिश कि मुझसे बात करने की | 
"हाँ भाई, ये सब ऐसे ही पड़े रहते हैं सड़क पे, कोई गाड़ी चढ़ गयी होगी, भला हो हॉस्पिटल का जिसने मरहम पट्टी तोह कर दी |" पीछे से किसी ने मेरे बगल वाले के सुर में सुर मिलाये | 
"हाँ लेकिन मर तो यह जाएगा ही", बगल वाला अपनी बात पर अडिग था | 
मैं वहां खड़ा होकर, आँखें नीचे करके उनकी बात सुन रहा था | मुझसे कोई उत्तर न पता देख दोनों निराश हो गए और मुड़ कर जाने लगे | मेरी अनेक कोशिशों के बावजूद मेरी आँखें उससे हट नहीं रही थीं | अचानक उसने आँखें उठाई और मेरी आँखें उससे जा मिलीं | एक दर्द, निराशा, और पीड़ा दिख रही थी उसकी आंखो में | जैसे किसी ने जीने की इच्छा छोड़ दी हो | उसे उसकी मौत अपने सामने दिख रही थी | और वहां से आने जाने वाला हर आदमी सिर्फ यही सोच रहा था कि कहीं बारिश में आने कि वजह से उसकी घडी या मोबाइल तो नहीं ख़राब हो गया | हर कोई बस इसलिए चैन कि सांस ले रहा था क्यूंकि उन्हें लग रहा था कि मौत तो उसकी होनी है | हम तो सुरक्षित हैं | हर कोई एक धोखे में था कि वे मौत कि इस चादर को नहीं ओढेंगे |  एक मायूसी छा गयी थी मेरे मन में | मैं सोचने लगा था 
ज़िन्दगी के सादे पटल पर में क्या लिखूं ,
मौत कि कविता खुद-ब- खुद अपनी छाप छोड़ जाएगी |
मैं नास्तिक होने के बावजूद प्रार्थना करने लगा था | मुझे असली इश्वर साक्षात अपने सामने दिख रहे थे | एक सच्चा इश्वर | और उस इश्वर से हम सब एक ही विनती करते हैं 
"आज नहीं!!!!"
वहां खड़ा होकर मैं सिर्फ सोच रहा था | मेरे हाथ उसकी मदद के लिए आगे नहीं बढ़ रहे थे | आते जाते लोगों को भी शायद कोई फरक नहीं पड़ रहा था | हर कोई अपनी धुन में मस्त था | अचानक से करीब १०-१२ पुलिसवाले उधर कि ओर आते हैं और राहगीरों को हटाने लगते हैं | उनमे से कई ने उस आदमी को भी देखा पर किसी ने उसकी मदद करने कि कोशिश नहीं कि | एक लाल-बत्ती वाली गाड़ी आकर वहां रूकती है, उसमे से एक महाशय निकलते हैं और चेहरे पर एक मुस्कान के साथ सीधा स्टेशन में प्रवेश कर जाते हैं. | उनके जाते ही सब कुछ पहले जैसा ही हो जाता है | उनकी लाल बत्ती चली जाती है | वहां तैनात पुलिसवाले बिखर जाते हैं | कुछ बच जाता है तो वो है एक मरता हुआ इंसान, उसकी पीड़ा, और मौत का तांडव देखते हुए कुछ नपुंसक लोग | 
समय बीत रहा था और आखिर ट्रेन के आने का संकेत हो गया था | मैंने घडी देखि तोह पाया कि 1.30 बज गए हैं | बडी हिम्मत करके मैंने एक बार फिर उस आदमी कि तरफ देखा और उसे निर्जीव पाया | मैं वहां खड़ा होकर यही सोचता रहा कि वह ज़िन्दा है या मर गया | मैंने हिम्मत जुटाई और उसकी तरफ बढ़ने कि कोशिश कि ही थी कि ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ गयी | मैं वहीँ खड़ा रहा और अपने पिता के स्टेशन से निकलने कि प्रतीक्षा करने लगा | मेरे पिता आए और हम दोनों वहां से निकल गए | जाते जाते मैंने एक बार फिर उसकी ओर देखा और पाया कि वो बिलकुल हिल नहीं रहा है | मेरा दिल बैठ गया | कुछ न कर पाने कि एक विवशता मेरे मन में घर कर गयी | लेकिन इस घटना ने मुझे बहुत कुछ सिखाया | मौत को देखने का नजरिया ही बदल दिया | साथ ही साथ मांस और चमड़ी के कवच में बंद कुछ हड्डियों के ढांचों से भी अवगत कराया | अब मुझे मौत से कोई डर नहीं रह गया है | भला ज़िन्दगी से कोई डरता है ? तो मौत से कैसा डर ?  
-मौत तू एक कविता है,
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको |
डूबती नब्जों में जब दर्द को नींद आने लगे,
ज़र्द सा चेहरा लिए चाँद उफक तक पहुंचे,
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब,
न अँधेरा न उजाला हो,
न रात न दिन ,
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब सांस आये ,
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको | 


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