Wednesday 14 May 2014

आर्तनाद

शोर यूँ ही ना परिंदों ने मचाया होगा,
कोई जंगल में शहर से आया होगा |
कल तक तो सभी किकोल रहे थे,
किसे पता था आज अंबर पर लहू का रंग छाया होगा |
कौन है जो राहों में हैं खून का रंग छोड़ते,
आख़िर ऐसी होली खेलना इन्हे किसी ने तो सिखाया होगा |
क्या है इनकी धर्म, जाति, क्या है इनका सोचना,
किसने इन्हे ज़िंदगी का यह गंदा रूप दिखाया होगा |
आज लोग है खड़े, क्रांति लाने पर डटे,
क्या पता किसी ने इन्हे इनका ईमान खरीद के बुलाया होगा |
नबस बुझती है, भड़कती है, एक मामूल है घबराना भी,
कल रात अंधेरे ने अंधेरे से कहा, एक आदत है जिए जाना भी |
रात फिर सब घर चले जाएँगे, रोटी तोड़कर सो जाएँगे,
इस इंतज़ार में की कब फिर एक और जंगल कटे,
कब फिर कुछ और परिंदे शोर मचाए ,
विद्रोह को क्रांति का नाम दिलाने कब यह जानवर फिर शहर से जंगल में जायें......

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